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Showing posts from May, 2020

क्या है मैकमोहन लाइन?

1914 में तय हुई थी चीन और भारत की सीमा। भारतीय साम्राज्य में तत्कालीन विदेश सचिव सर हेनरी मैकमहोन ने ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के बीच 890 किलोमीटर लंबी सीमा खींची. इसमें तवांग (अरुणाचल प्रदेश) को ब्रिटिश भारत का हिस्सा माना गया । यह रेखा भूटान की पूर्वी सीमा से हिमालय की शृंखला से होती हुई ब्रह्मपुत्र नदी के बड़े मोड़ तक पहुँचती है, जहाँ से यह नदी अपनी तिब्बतीय जलधारा से निकलकर असम की घाटी में प्रवेश करती है। चीनी गणराज्य के प्रतिनिधियों ने भी 'शिमला समझौते' में भाग लिया था, लेकिन उन्होंने इस आधार पर तिब्बत के दर्जे एवं सीमाओं के बारे में मुख्य समझौते पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया कि तिब्बत चीन के अधीन है और उसे सन्धि करने का अधिकार नहीं है। स्वतंत्र भारत के साथ सीमा विवाद के कारण 1962 के अक्टूबर-नवम्बर में भारत-चीन युद्ध तक चीन इस रवैये पर क़ायम रहा। इस लड़ाई में चीनी सेनाओं ने मैकमोहन रेखा के दक्षिण में भारतीय इलाके पर क़ब्ज़ा कर लिया, लेकिन बाद में युद्ध विराम के बाद वह हट गई। पिछले कुछ दिनों से लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) यानी कि वास्तविक न

क्या होता है मोरेटोरियम (Moratorium meaning )

What is Moratorium Period ? RBI गवर्नर शक्तिकांत दास ने कुछ दिन पहले प्रेस कांफ्रेस में RBI गवर्नर ने कई बड़ी घोषणाएं कीं. RBI ने एक बार फिर से  प्रमुख ब्याज दर रेपो रेट में 0.40% की कमी की है, ताकि लोन सस्ते हो जाएँ. इसके साथ ही मार्च में को लोन की किश्त चुकाने में 3 महीने की छूट दी गई थी, उसे 3 महीने के लिए और आगे बढ़ा दी है। अपनी Press Conference में RBI गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा, "कोविड-19 के चलते लॉकडाउन की अवधि बढ़ने से हमने एसएमई के लिए लोन पर तीन महीने के और मोरेटोरियम की घोषणा की है" । अब ऐसे में चारों ओर केंद्र की इस घोषणा में आपको एक ही शब्द सुनाई दे रहा होगा 'Moratorium Period' या फिर  हिंदी में कहें तो 'मोरेटोरियम अवधि'. यह शब्द आपमें से कुछ लोगों को पता होगा, तो बहुतों के लिए यह शब्द या कहें Term नया होगा । मोरोटोरियम (moratorium) का मतलब होता है कि इस अवधि में कर्जधारक को मासिक किस्त चुकाने की आवश्यकता नहीं है. इससे नकदी संकट का सामना कर रहे ऋणधारकों को आसानी हो सकती है. रिजर्व बैंक ने क्रेडिट की जानकारी रखने वाली कंपनि

Maywati vs Congress

आखिर क्या वजह है कि  बीएसपी सुप्रीमो मायावती (BSP Supremo Mayawati) को इस समय कांग्रेस (Congress) फूटी आंखों नहीं सुहा रही है. राजस्थान के कोटा से छात्रों के लाने के मुद्दे से लेकर यूपी में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) की ओर से बसें भेजे जाने तक, हर चीज पर मायावती कांग्रेस पर ही दोष मढ़ने से नहीं चूक रही हैं. हालांकि उनके निशाने पर बीजेपी सरकार भी है. यह विपक्ष में होने के नाते उनकी एक ज़िम्मेदारी भी है कि सरकार को कटघरे में खड़ा करें. लेकिन कांग्रेस निशाने पर क्यों है यह चर्चा का मुद्दा है. बीएसपी  सुप्रीमो के हाल में किए गए कुछ ट्वीट पर ध्यान दें तो उन्होंने कहा, 'राजस्थान की कांग्रेसी सरकार द्वारा कोटा से करीब 12,000 युवा-युवतियों को वापस उनके घर भेजने पर हुए खर्च के रूप में यूपी सरकार से 36 लाख रुपए और देने की जो माँग की है वह उसकी कंगाली व अमानवीयता को प्रदर्शित करता है। दो पड़ोसी राज्यों के बीच ऐसी घिनौनी राजनीति अति-दुखःद'. है। एक दूसरे ट्वीट में उन्होंने लिखा, 'लेकिन कांग्रेसी राजस्थान सरकार एक तरफ कोटा से यूपी के छात्रों को अपनी कुछ

Taiwan: President Tsai Ing-Wen Clear Message To China, Said Talks Will Not Be Held On Merger

ताइवान: राष्ट्रपति साई इंग-वेन का चीन को साफ संदेश, बोलीं- विलय पर नहीं होगी वार्ता     ताइवान: राष्ट्रपति साई इंग-वेन चीन के साथ तनाव के बीच ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ समानता के आधार पर बातचीत की पेशकश करते हुए स्पष्ट किया, लोकतांत्रिक ताइवान किसी भी सूरत में चीनी नियम-कायदे स्वीकार नहीं करेगा और चीन को इस सच्चाई के साथ शांति से जीने का तरीका खोजना होगा।  ताइवान की 63 वर्षीय राष्ट्रपति ने ताइपेई में बुधवार को परेड के साथ दोबारा पद संभालते हुए कहा, वह चीन के साथ बातचीत कर सकती हैं, लेकिन एक देश-दो सिस्टम के मुद्दे पर नहीं। चीन के साथ बढ़ते तनाव के बीच ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने रिकार्ड रेटिंग के साथ अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत की है। इस दौरान उन्होंने चीनी राष्ट्रपति के साथ सह-अस्तित्व के आधार पर बातचीत की पेशकश की है। साई के पहले कार्यकाल के दौरान चीन ने ताइवान से सभी प्रकार के रिश्तों को खत्म कर दिया था। क्योंकि चीन हमेशा से ताइवान को अपना अभिन्न हिस्सा मानता है जबकि ताइवान खुद को एक अलग देश बताता है। साई इंग

भारतीय सेना का टूर ऑफ ड्यूटी प्लान / Indian Army Tour of Duty Plan

जानें क्या है भारतीय सेना का टूर ऑफ ड्यूटी प्लान इंडियन आर्मी में 3 साल के लिए आम लोगों की भर्ती हो सकेगी  टूर आफ ड्यूटी के नियम आने के बाद से  ।                                       अगर आपमें इंडियन आर्मी में जाकर देश की सेवा करने का जज्बा है तो यकीन मानिए आपके मन की मुराद पूरी होने वाली है। आर्मी ने आम लोगों को ट्रेनिंग देने का प्लान तैयार किया है। भारतीय सेना एक ऐसे प्रपोजल पर काम कर रही है जिसके मुताबिक आम युवा लोग तीन साल के लिए आर्मी में शामिल हो सकते हैं।  इस योजना को टूर ऑफ ड्यूटी ( Tour of Duty - ToD ) का नाम दिया गया है। ToD मॉडल पहले से चले आ रहे शॉर्ट सर्विस कमिशन जैसा होगा जिसके तहत वह युवाओं को 10 से 14 साल के आरंभिक कार्यकाल के लिए भर्ती करती है। अगर इस प्रपोजल को मंजूरी मिलती है तो सेना इसे लागू कर सकती है। सेना के एक प्रवक्ता ने कहा, सेना आम नागरिकों को तीन साल की अवधि के लिए बल में शामिल करने के ‘टूर ऑफ ड्यूटी' के प्रस्ताव पर विचार कर रही है। सेना प्रतिभाशाली युवाओं को आकर्षित करने के लिए अनेक प्रयास करती रहती है। योजना के जरिए वे युवा भी सेना म

भाजपा के प्रभुत्व ने भारत के राजनीतिक परिदृश्य को कैसे बदल दिया ।

अब यह सामान्य ज्ञान है कि भारतीय राजनीति एक मूलभूत परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। यह जनसांख्यिकीय  में परिवर्तनों से हुआ है जैसे कि मध्यम वर्ग के आकार में कई गुना वृद्धि, सोशल मीडिया की पैठ, पुरानी विचारों से दूर हो जाना और चुनावी प्रतिस्पर्धा की प्रकृति में  बदलाव। 2014 के बाद से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सामाजिक और भौगोलिक विस्तार ने राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया है, जिसके परिणाम है,  कांग्रेस का और अधिक हाशिए पर चला जाना, वाम मोर्चा का पतन और राज्य-स्तरीय दलों की ताकत में गिरावट आई है। पिछले दो दशकों में चुनावी प्रचार पर हावी होने वाली राज्य स्तरीय मुद्दे अब चुनावी विश्लेषणों में कम हो गई हैं। इसी तरह, बीजेपी ने   वोट में बढ़त हासिल की, जाति और वर्ग की तर्ज पर अतीत के बंटे हुए विभिन्न वोटिंग बैंक को भी भगवा रंग में रंग दिया। हालांकि, 2019 नई दिल्ली में भाजपा के नेतृत्व वाले शासन के लिए मिश्रित समाचार लेकर आया। यह दिसंबर 2018 में हिंदी हार्टलैंड में तीन राज्यों के चुनावों में नुकसान की बढ़ती छाया के तहत शुरू हुआ। अप्रैल और मई में लोकसभा चुनाव, तनावपूर्ण पृष्ठभूमि म

Selective politics in India

   चयनात्मक प्रदर्शन मनोविज्ञान के अंदर एक सिद्धांत है,जिसे अक्सर मीडिया और संचार अनुसंधान में प्रयोग किया जाता है।     यह ऐसे लोगों की प्रवृत्ति को प्रदर्शित करता है। जो विरोधाभासी जानकारी से बचते हुए, अपने पहले से मौजूद विचारों को व्यक्त करते है।     अगर भारत के संदर्भ में बात करें,तो भारत में लगभग हर राजनीतिक दल कहीं ना कहीं सिलेक्टिव पॉलिटिक्स का सहारा लेती है। चाहे वह कांग्रेस पार्टी हो या वाम दल हो या फिर भाजपा हो, लेकिन इन सभी दलों के सिलेक्टिव पॉलिटिक्स से थोड़ा अलग सिलेक्टिव पॉलिटिक्स सिस्टम भाजपा का है, जहां आकर सभी दूसरे राजनीतिक दल सियासी मात खा जाते हैं।  भारतीय राजनीति में सिलेक्टिव पॉलिटिक्स शब्द को एक गर्म राजनीतिक बहस के केंद्र में लाने का श्रेय भी भाजपा को जाता है।  विगत कुछ वर्षों में  जब से भाजपा सत्ता में आई है, कई अहम राजनीतिक फैसलों के समय यह बहस के केंद्र में आ जाता है।  कश्मीर से धारा 370 हटाने के क्रम में कश्मीर के पूर्व सीएम फारुख अब्दुल्ला को नज़रबंद किया गया तो कांग्रेस एवं उसके सहयोगी दलों द्वारा इसका विरोध किया जाने लगा एवं रिहाई की

भारतीय राजनीति: लड़ाई वर्चस्व एवं अस्तित्व रक्षा की।

 जब से भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी का पदार्पण हुआ है, वर्षों से चला आ रहा वर्चस्व की लड़ाई  तीव्र और त्तीवतर  होती जा रही है, ऐसा नहीं है कि यह लड़ाई भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के आने से शुरू हुआ है, नहीं यह तो उससे पहले से चला आ रहा है।  फर्क यह था कि जो आज वर्चस्व के लिए लड़ रहा है वह कल तक अस्तित्व बचाने के लिए लड़ रहा था घटनाक्रम में सिर्फ पात्रों का स्थान बदल गया है, लड़ाई तो वही पुरानी है। पहले इस लड़ाई का दायरा सीमित था, युद्ध सीमित थे परंतु आज युद्ध असीमित और दायरा सीमित हो चुका है।  जी हां आप सही समझे हैं, मैं बात कर रहा हूं ज़ी न्यूज़ के सुधीर चौधरी और रिपब्लिक भारत के अर्नब गोस्वामी पर हुए एफ आई आर की ।      सुधीर चौधरी का गुनाह यह है कि उसने "रोशनी योजना"के तहत जम्मू कश्मीर में खास वर्ग को दिये जमीन पर आवाज उठाया और इसे जमीन जिहाद कहां। अर्नब गोस्वामी का दोष यह है कि उसने पालघर साधु हत्याकांड पर , उसके तह में जमकर कांग्रेेस एवं सोनिया गांधी पर  प्रश्न उठाया।  फिर क्या था मीडिया की आजादी  की बात करने वालों को बुरा लग गया, कर दिया

मज़दूरों की घर वापसी : सरकारों की तैयारी

भारत में अब तक लगभग 135 ट्रेनों से एक लाख से ज्यादा लोगों घर लौट चुके हैं और यह सिलसिला अभी सिर्फ शुरू हुआ है।    देश के बड़े मज़दूरों वाला राज्य यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड इत्यादि राज्यों की मज़दूरों की संख्या की बात करें तो किसी भी राज्य में लौटने वाले मज़दूरों की संख्या 10 लाख से कम नहीं होगी , किसी-किसी राज्य में यह संख्या 20 से 30 लाख तक भी होगी।  विभिन्न राज्य सरकारों ने प्रारंभ में जन भावनाओं के दबाव में आकर राज्य के बाहर काम कर रहे मज़दूरों को वापस बुलाने का निर्णय तो ले लिया ,परंतु इस निर्णय के साथ जुड़ी समस्याओं के तरफ किसी राज्य सरकार का ध्यान नहीं गया। इस वक्त जबकि राज्यों में 5 से 10 हजार लोग ही वापस आए हैं, राज्य सरकारों की बेचैनी बढ़ने लगी है क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में लोगों को लाना, लोगों को 15 या 21 दिन तक क्वॉरेंटाइन रखना, क्वॉरेंटाइन सेंटर बनाना, सभी राज्यों को परेशानी  में डालने लगा है।  ऐसे में राज्य सरकारों की सुर बदलने लगे है, महाराष्ट्र सरकार द्वारा मंजूरी देने के बाद भी पश्चिम बंगाल सरकार ने मज़दूरों की वापसी से कदम पीछे खींच लिया है कु

भारत के 7वें राष्‍ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की गांधी परिवार से तल्खी ।

इंदिरा ही नहीं राजीव से भी तल्‍ख थे राष्‍ट्रपति जैल सिंह के रिश्‍ते, बर्खास्‍त करनी चाही थी सरकार । भारत के 7वें राष्‍ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को इंदिरा गांधी का बेहत करीबी और वफादार माना जाता था। 25 जुलाई 1982 को उन्‍होंने पदभार संभाला था। जिस वक्‍त वो देश का 7वें राष्ट्रपति बने थे उस वक्त पंजाब में आतंकवाद चरम पर था। राष्‍ट्रपति बनने से वह पंजाब के मुख्यमंत्री के अलावा इंदिरा गांधी सरकार में वह गृहमंत्री भी रह चुके थे। इस दौरान उन पर भिंडरावाला को संरक्षण देने का भी आरोप लगा था। अपने राष्‍ट्रपति के कार्यकाल में जैल सिंह ने पार्टी से ज्‍यादा की भारतीय संविधान को तवज्जो दी। जैल सिंह ने इंदिरा गांधी द्वारा आंध्र प्रदेश एनटी रामाराव की सरकार को गिराए जाने का पुरजोर विरोध किया। उनके ही दबाव में आकर इंदिरा गांधी को एनटीआर की सरकार फिर से बहाल करनी पड़ी थी। जैल सिंह और इंदिरा में तल्‍खी । जैल सिंह और इंदिरा गांधी के राजनीतिक तौर पर भले ही अच्‍छे थे लेकिन इनमें तल्‍खी भी कम नहीं थी। रामाराव के मसले पर दोनों के बीच मतभेद साफतौर पर सामने आया था। इतना ही नहीं 1984 में स्‍वर्ण मंदिर

कोरोना असर : क्या दुनिया सिंगल यूज़ प्लास्टिक को बैन करने के लिए आगे बढ़ेगी

कोरोना महामारी के पूर्व सारी दुनिया की सरकारें धीरे-धीरे सिंगल यूज प्लास्टिक बैन की तरफ कदम बढ़ा रही थी, भारत सरकार  भी 2024 तक देश को प्लास्टिक फ्री बनाने की दिशा में कार्य कर रही थी।  देश के कई राज्यों में प्लास्टिक प्रोडक्ट  पर बैन कर दिया गया था ताकि पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को कम किया जा सके और पर्यावरण की क्षति को रोका जा सके। लेकिन इन सारे प्रयासों पर एक प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है।       कोरोना  प्रकरण में जिस प्रकार प्लास्टिक एक इकलौता प्रोडक्ट  के रूप में सामने आया है, जो लंबे समय तक मानव को संक्रमण जैसी महामारी से बचा सकता है। इस वक्त चिकित्सा कर्मी, सफाई कर्मी, पुलिस इन सभी लोगों को कार्य के दौरान विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक से बने PPE, दास्ताने, जूता कवर, मास्क, के लिए सुरक्षा कवच बना हुआ है, इसी प्रकार साधारण जनता के लिए भी संक्रमण से बचाव के लिए महत्वपूर्ण है।  कोरोना की भयावहता जिस प्रकार से सामने आ रही है, प्लास्टिक और प्लास्टिक से बने सामान लंबे समय तक मानव की सुरक्षा के लिए उपयोगी साबित होंगे। ऐसे में क्या दुनिया पर्यावरण संरक्षण के लिए आगे बढ

भारतीय राजनीति :अस्तित्व खोता विपक्षी दल।

भारतीय राजनीति : अस्तित्व खोता विपक्षी दल। यूं तो भारतीय राजनीति में विपक्ष हमेशा बहुत कमजोर रहा है, कुछ अपवादों को छोड़कर, लेकिन आज  जो स्थिति बन गई है, शायद कुछ अरसों के बाद कुछ राजनीतिक दल इतिहास बन जाएंगे , और बच्चे इतिहास में पढ़ेंगे कि यह राजनीतिक दल थे । जैसे बीएसपी , वाम दल,  कांग्रेस इत्यादि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है अगर आप कारणों का विश्लेषण करने बैठेंगे तो जो मुख्य कारण दिखाई देगा वह है । 1. राजनीतिक दलों का फैमिली प्राइवेट फॉर्म बन जाना   भारत के तमाम राजनीतिक दल जैसे कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस,  तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना, सपा , बसपा, जनता दल यूनाइटेड , आरजेडी, यह सभी राजनीतिक दल किसी खास राजनीतिक परिवारों के आगे पीछे घूमता है। इन दलों की राजनीतिक विचारधारा पार्टी सुप्रीमों के राजनीतिक जरूरतों के अनुसार बदलते रहती है। इन दलों में नेताओं और कार्यकर्ताओं  की मंडली पार्टी सुप्रीमों की चापलूसी में लगे रहते हैं यहां पर सुप्रीमों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा पहले आती है फिर उनकी नेताओं की महत्वाकांक्षा होती है इन महत्त्वकांक्षा के बीच में समाज और देशहित की आहुति पड